http://baklol.co/aarambh-4/
जिसे दर्शन शास्त्र कहा जाता है उसके हिसाब से हमारे धर्म को देखेंगे तो इसमें अद्वैत, द्वैत, विश्सिष्टाद्वैत, जैसे कई हिस्से होते हैं। भारत में छठी शताब्दी के लगभग जब बौद्ध मत प्रबल था उस समय आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ और उन्होंने अद्वैत के माध्यम से फिर से हिंदुत्व को जागृत किया। उनके लिखे कई स्त्रोत आज भी पूजा में इस्तेमाल होते सुने जा सकते हैं। काफी कम आयु में ही शंकराचार्य सन्यासी हो गए थे। उनसे जुड़ी भी कई कथाएं हैं।
उन्होंने पैदल ही पूरे भारत कि यात्रा कर डाली थी। इस लिहाज से भी अपने समय के समाज का अनुभव काफी ज्यादा था। भारत के चारों कोनों पर एक एक मठ कि स्थापना करके उन्होंने फिर से वेदों और वेदांत जैसे विषयों के पठन पाठन को पुनर्जीवित करने में भी काफी योगदान दिया। अद्वैत दर्शन के हिसाब से उपनिषदों के कई भाष्य भी उन्होंने लिखे थे। लेकिन मानते हैं कि शुरू में उनकी अद्वैत में निष्ठा नहीं थी। वो उंच-नीच मानते थे।
तो एक दिन जैसे ही वो गंगा में नहाकर निकले और बनारस के घाट की सीढियाँ चढ़ते जा रहे थे कि उनके सामने एक कसाई आ गया। कसाई ने झुककर शंकराचार्य के पाँव छूने कि कोशिश की। इतना करना था कि शंकराचार्य कूद कर पीछे हटे। वो चीखे, नीच मुझे छू कर अपवित्र करने कि चेष्टा क्यों कर रहा है ? मुझे फिर से स्नान करना पड़ेगा ! कसाई मुस्कुराकर बोला, ना तो आपने मुझे छुआ है, ना मैंने आपको ! शरीर पंचतत्वों का बना होता है, शुद्ध आत्मा तो इनसे बनी नहीं हो सकती ! फिर स्पर्श हुआ कहाँ ?
शंकराचार्य के ज्ञान को झटका लगा, अब उन्हें कसाई में भगवान शंकर नजर आये। इस तरह उन्हें समझ में आया की दूसरा तो कुछ होता ही नहीं सब एक ही आत्मा है, और अद्वैत में उनकी निष्ठा हुई।
शंकराचार्य ने ज्ञान का मार्ग चुना था। निस्वार्थ सेवा और आत्म-ज्ञान दोनों ही कर्म बंधन से मुक्त करते हैं। समय समय पर भगवान् भी धरती पर आते हैं, वो अपने उपासकों कि मदद भी करते हैं। जैसे शंकराचार्य के लिए शंकर आये और अर्जुन के लिए कृष्ण। बिलकुल वैसे ही जैसे आप विश्वविद्यालयों में जाने के लिए प्रयास करते हैं, तैयारी करते हैं प्रभु से भी ज्ञान पाने के लिए पहले खुद को तैयार करना पड़ता है। ज्ञान से पिछले कर्म फल भी नष्ट हो जाते हैं। जैसे अपने रिज्यूम पर CV पर शुरू में आप अपने एजुकेशनल क्वालिफिकेशन लिखते हैं, लेकिन धीरे धीरे उनकी जगह आपका वर्क एक्सपीरियंस लेता जाता है।
शंकराचार्य को ही भगवत गीता को महाभारत से निकाल कर एक अलग ग्रन्थ बनाने का श्रेय भी दिया जाता है। श्रीमद् भगवद्गीता का ज्ञान-संन्यास मार्ग नाम का चौथा अध्याय ज्ञान और संन्यास के जरिये भगवान् को जानने के बारे में ही है। शंकराचार्य के इस किस्से के बहाने हमने आपको (धोखे से) गीता का चौथा अध्याय पढ़ा दिया है।
बाकी ये नर्सरी के लेवल का है और पीएचडी के स्तर के लिए आपको खुद पढ़ना पड़ेगा, क्योंकि अंगूठा छाप तो आप हैं नहीं, ये तो याद ही होगा ?
No comments:
Post a Comment